" चाहत "
जब कभी हम बारिश की नन्हीं-नन्हीं बूंदों को
आकाश से धरा पर गिरते हुए देखते हैं तो
हमारा मन करता है कि उन्हें अपनी मुठ्ठी में
बंद कर लें सदा के लिए
किन्तु क्या हम ऐसा कर पाते हैं
नहीं, न !
फिसल जाती हैं न वे सभी बूंदे हमारे हाथों से
किसी रेत के मानिंद !
जब हम कभी वक्त को रोकना चाहते हैं
तब हम मन ही मन सोचते हैं कि
काश ! यह वक्त यहीं ठहर जाए
किन्तु क्या ऐसा हो पाता है
नहीं, न !
चलता ही चला जाता है न वह तो
अपनी नियत चक्र की धुरी पर !
जब कभी हम ढूंढना चाहते हैं
अपने ही कदमों के निशाँ उन रास्तों पर
जिन पर चलकर हम रोज गुजर जाते हैं
परन्तु क्या हम ऐसा कर पाते हैं
नहीं, न !
वे तो शायद मिल जाते हैं इस तरह परस्पर
कि क़दमों की इस भीड़ में वे
अपनी अलग पहचान बचा सकते ही नहीं !
जब कभी अपने ही हमसे बिछुड़कर
कहीं दूर, बहुत दूर चले जाते हैं
कभी वापिस न लौट कर आने के लिए
तब क्या उन्हें हम लाख चाहकर भी रोक पाते हैं
नहीं, न !
वे तो शायद चल पढ़ते हैं ऐसी अन्जानी राहों पर
जिस की 'मंजिल' की आज तक किसी को कोई खबर ही नहीं !
यूँ तो विधाता ने हमें बहुत कुछ दिया है
यह अमूल्य जीवन देकर
किन्तु यदि 'सब' कुछ ही दिया होता उसने
तो वह 'सब' न हो पाता जो तो हर हाल में होना ही था
हमारे चाहने या न चाहने से होता है क्या
हमारी हर चाहत के पीछे न हो यदि उसकी रज़ा
उसने जीवन और मरण के बीच में रखा अंतर केवल इतना
कि साँस आ गयी तो रहता जीवन और रूक गयी तो जिंदगी से विदा !
साँस रूक गयी तो …………………।
-एस.के.गुप्ता
चंडीगढ़ (एम -552 )
14/01/15
14/01/15
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