Saturday, October 22, 2016

K S Iyer (M-187) In response to A Glass of Mirroe



A respnse to A Glass of Mirror!

I had a sleepless night
The morning after,
I saw the mirror
Shocked, bewildered;
Red eyes & Swollen face;
I flashed water 
Again and again but
Weirdness was there;
Had some coffee
And came again
Looked at mirror
No change it was same;
Sat down did breathing
Mind calmed and
Lord Was with me
Smile crawled on lips;
I looked at my face in
The mirror of my heart
Surprised to see me
SO CALM, PEACEFUL HAPPY & WITH SERENITY!!

KSI - M187

Wednesday, October 19, 2016

M G Warrier (M-134)- A Glass of Mirror!

I had a sleepless night
The morning after,
I saw the mirror
Shocked, bewildered
I ran away…
’Cos, I didn’t see me,
In the mirror
The mirror doesn’t cheat,
I believed…
I could feel my face,
I touched my nose,
But then…Where am I?
If I am not in the mirror,
How can anyone see me?
How can I ask,
Someone who can’t see me,
To feel me by touch?
**  **  **
A sudden ‘shout’…
Brought me back
To my senses…
“Who has reversed the mirror?”*
***
*It was a fancy mirror. One side mirror and the other side opaque.


Poet: M G Warrier (Self composed)

Tuesday, September 20, 2016

S Nallasivan (M-535) - औरतें बेहद अजीब होतीं है

लोग सच कहते हैं -
औरतें बेहद अजीब होतीं है

 रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं है
दरवाजों की कुंडियाॅ

बच्चों की चादर
पति का मन..
और जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं है

औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर...
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐं

पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर भी
सब के करीब होतीं हैं

औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध...

कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,

मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...

सहेलियों से लिए-दिये..
या चुकाए गए हिसाब
बच्चों के मोजे, पेन्सिल किताब

खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ

न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती है

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

कितनी बार देखी है...
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी, वो दीदी...

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,

सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत मेंरात फिर से सलीब होती है...

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं

और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं

तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में
नदी की तरह बहती...
कोंपल की तरह फूटती...

जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?

सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

Poet - Gulzar

D K Bakshi (M-107) - आतंकी हमले के शहीदों को कोटि कोटि नमन


ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आये है?

माँ मेरा मन बात ये समझ ना पाये है,
ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

पहले पापा मुन्ना मुन्ना कहते आते थे,
टॉफियाँ खिलोने साथ में भी लाते थे।
गोदी में उठा के खूब खिलखिलाते थे,
हाथ फेर सर पे प्यार भी जताते थे।

पर ना जाने आज क्यूँ वो चुप हो गए,
लगता है की खूब गहरी नींद सो गए।
नींद से पापा उठो मुन्ना बुलाये है,
ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

फौजी अंकलों की भीड़ घर क्यूँ आई है,
पापा का सामान साथ में क्यूँ लाई है।
साथ में क्यूँ लाई है वो मेडलों के हार ,
आंख में आंसू क्यूँ सबके आते बार बार।
चाचा मामा दादा दादी चीखते है क्यूँ,
माँ मेरी बता वो सर को पीटते है क्यूँ।
गाँव क्यूँ शहीद पापा को बताये है,
ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

माँ तू क्यों है इतना रोती ये बता मुझे,
होश क्यूँ हर पल है खोती ये बता मुझे।
माथे का सिन्दूर क्यूँ है दादी पोछती,
लाल चूड़ी हाथ में क्यूँ बुआ तोडती।
काले मोतियों की माला क्यूँ उतारी है,
क्या तुझे माँ हो गया समझना भारी है।
माँ तेरा ये रूप मुझे ना सुहाये है,
ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

पापा कहाँ है जा रहे अब ये बताओ माँ,
चुपचाप से आंसू बहा के यूँ सताओ ना।
क्यूँ उनको सब उठा रहे हाथो को बांधकर,
जय हिन्द बोलते है क्यूँ कन्धों पे लादकर।
दादी खड़ी है क्यूँ भला आँचल को भींचकर,
आंसू क्यूँ बहे जा रहे है आँख मींचकर।
पापा की राह में क्यूँ फूल ये सजाये है,
ओढ़ के तिरंगे को क्यूँ पापा आये है।

क्यूँ लकड़ियों के बीच में पापा लिटाये है,
सब कह रहे है लेने उनको राम आये है।
पापा ये दादा कह रहे तुमको जलाऊँ मैं,
बोलो भला इस आग को कैसे लगाऊं मैं।
इस आग में समा के साथ छोड़ जाओगे,
आँखों में आंसू होंगे बहुत याद आओगे।
अब आया समझ माँ ने क्यूँ आँसू बहाये थे,
ओढ़ के तिरंगा पापा घर क्यूँ आये थे ।

(P0et Not known)

Monday, September 12, 2016

M G Warrier (M-134) - From a poem by Alfred Henry Miles

I cannot do the big things
That I should like to do
To make the earth forever fair,
The sky forever blue
But I can do small things
That help to make it sweet
Tho' clouds arise and fill the skies
And tempests best.
I cannot stay the rain drops
That tumble from the skies
But can wipe the tears away
From the baby's pretty eyes.....
(From a poem by Alfred Henry Miles)

Saturday, September 10, 2016

S K Gupta (M-552) - "कल, आज और कल"- A poem on Plight of Pensioners

"कल, आज और कल"  

हम थे जिन के सहारे 
वो हुए न हमारे 
देते रहे हमें बस दिलासा 
फिर छोड़ गए बीच मझधारे । 

कहते रहे यही राजन जी 
थोड़ा तो धीरज तुम धरो जी 
तन-मन से मैं अब लगा हूँ 
पेंशन जल्द अपडेट होगी ।

हालांकि राह कुछ कठिन है 
पर चिंता तुम न करो जी 
मेरी कोशिश चल रही है
आशा है यह फलीभूत होगी । 

हम भी करते रहे उन पर भरोसा 
तीन बरस में जो कुछ उन्होंने था परोसा 
करते भी तो और हम क्या करते?
पर आज हमने खुद को जी भर के कोसा ।

ऐसा कभी सोचा न था कि राजन जी
किसी नेता की माँनिंद 'वायदे ही वायदे' करेंगे 
यूं तो रघुराम जी को भुलाना है मुश्किल 
किन्तु यादों में उनकी फूलों संग कांटे भी चुभेंगें । 

बेहतर तो यही होता यदि राजन जी 
ये झूठे सपने न दिखाए होते अपनेपन के 
न ही जगती कोई धूमिल-सी आशा 
बिछुड़े हुए साथियों के परिजनों के मन में । 

सोचा था विदाई के अंतिम क्षणों में 
अब तो वे सच, केवल सच ही कहेंगे 
पर डाल दिया उस पर भी पर्दा 
कहकर कि मंत्री जी से कल फिर मिलेंगे । 

कल भी यही सब हमने था देखा 
आज फिर वही आपने कर दिखाया 
पर 'या खुदा' हम तो अब भी वहीं खड़े हैं 
वर्षों पहले जहां हमने खुद को था पाया ।  

न जाने अब कल क्या होगा
क्या फिर से उम्मीदें जगेंगी?
पर कैसे छोड़ दे इन का दामन 
फखत इनसे ही तो हिम्मत बँधेगी । 

-एस.के.गुप्ता  (Self composed)
M-552